Last modified on 24 फ़रवरी 2020, at 15:30

माँ की ढोलक / ब्रज श्रीवास्तव

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:30, 24 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रज श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ढोलक जब बजती है
तो जरूर पहले
वादक के मन में बजती होगी.

किसी गीत के संग
इस तरह चलती है
कि गीत का सहारा हो जाती है
और गीत जैसे नृत्य करने लग जाता है..जिसके पैरों में
घुंघरू जैसे बंध जाती है ढोलक की थाप.

ऐसी थापों के लिए
माँ बखूबी जानी जाती है,
कहते हैं ससुराल में पहली बार
ढोलक बजाकर
अचरज फैला दिया था हवा में उसने.

उन दिनों रात में
ढ़ोलक -मंजीरों की आवाजसुनते सुनते ही
सोया करते थे लोग.
दरअसल तब लोग लय में जीते थे.
जीवन की ढ़ोलक पर लगी
मुश्किलों की डोरियों को
खुशी खुशी कस लेते थे
बजाने के पहले.

अब यहाँ जैसा हो रहा है
मैं क्या कहूँ
उत्सव में हम सलीम भाई को
बुलाते हैं ढ़ोलक बजाने
और कोई नहीं सुनता.

इधर माँ पैंसठ पार हो गई है
उसकी गर्दन में तकलीफ है
फिर भी पड़ौस में पहुँच ही जाती है
ढ़ोलक बजाने.

हम सुनते हैं मधुर गूँजें
थापें अपना जादू फैलाने लगती हैं
माँ ही है उधर
जो बजा रही है
डूबकर ढ़ोलक.