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कनेर होने की कला / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

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एक कनेर,
खड़ा है आज भी,
राह के एक ओर।
निर्लिप्त भाव से देह पर
लादे पीले फूलों की चादर।

खिलता है हर रोज,
बिना तोड़े जाने के भय के।
जब भी देखा उसे,
समर्पण में खड़े देखा।

उसे फर्क नहीं पड़ता,
वो अकेला ही क्यों खड़ा है।
क्यों उसके फूलों पर,
उसका अधिकार नहीं।

वो बस खड़ा है
जीवट का प्रतीक बन कर।
सोचता हूँ इस बार मिल कर पूछूँ उससे,
कनेर होने की कला।