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चंद्रयान / ऋचा दीपक कर्पे
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मैं मीलों दूर से निहारती रहती थी तुम्हें... अपलक...एकटक...!
लगता था आगे बढकर छू लूँ तुम्हें...
तुम उजले उजले-से...धवल...श्वेत!
रोशनी की चकाचौंध से घिरे हुए...
मुझे नित नया रूप दिखाते।
कभी नज़र ही न आते तुम
तो कभी अपनी संपूर्णता के साथ
मुझे आकर्षित करते
और उस दिन मैं अपनी बाहें फैलाए
तुम तक पहुँचने की निराधार चेष्टा करती...
कभी मैं खुद में ही तुम्हारा सुंदर प्रतिबिंब देखती...
लेकिन यह समझ न पाती
कि भला क्या है मुझ में ऐसी बात,
क्या ऐसा नज़र आता है तुम्हें मुझमे,
जो मेरे ही चारों ओर मंडराते रहते हो, निरंतर...अविरत...!
लेकिन आज,
जब देखा मैंने खुद को तुम्हारी नज़रों से
तब अहसास हुआ
कि मैं सच में खूबसूरत हूँ...!
बहुत खूबसूरत!