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शून्य से ज़्यादा / रोहित आर्य
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शून्य से ज़्यादा नहीं हैं, कुछ भी हम सँसार में,
क्या अहम् है जो हमारे, सिर पै चढ़कर बोलता।
सिर्फ दो कौड़ी है कीमत, तुच्छ मानव देह की,
किसलिए ख़ुद को हे मानव, रत्न जैसे तोलता।
प्यार के दो शब्द काफ़ी, हैं जगत को जीतने,
किन्तु तू अपनी जुबां से, शब्द कड़वे बोलता॥
देख ईश्वर को ये दुनियाँ, सौंप दी तेरे लिए,
किन्तु फिर भी छीनने को, तू जहाँ में डोलता॥
खूबसूरत प्रकृति थी, उसने तुझको सौंप दी,
बनके दुश्मन किसलिये तू, विष इसी में घोलता॥
बाँटकर तो देख ले, आनन्द अद्भुत पायेगा,
क्यों न 'रोहित' द्वार तू, अपने हृदय के खोलता॥