भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्मृतियों का जंगल / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:55, 3 सितम्बर 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = रति सक्सेना }} हर अपने की मौत मुझे गर्भित कर देती है ए...)
हर अपने की मौत
मुझे गर्भित कर देती है
एक नन्हें से खालीपन से
जो
हुंकारता है
डराता है
दानव बन बैठ जाता है
मेरे खाली क्षणों में
मैं दौड़ती हूँ , अपने से दूर
थक कर गिरती हूँ
पस्त, और भरने लगती हूँ
खाली पने को ज़िन्दगी से
इसी तरह
हर अपने की मौत
मुझे खींच कर सुपुर्द कर देती है
स्मृतियाँ के जंगल के