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विचारों का गाँधी होना / प्रांजलि अवस्थी
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मंच पर कुछ चेहरे तेज पुंज की तरह चमक रहे थे
जो खास थे
सूरज ने अपनी गोद में उन्हें बैठाया था
और कुछ धूप के टुकड़े मोमेन्टो की तरह
अपने सामने रख छोड़े थे
दर्शक दीर्घा कि शुरूआती श्रेणियाँ
सुनहरे अक्षरों में शोभायमान थीं
अंतिम पंक्तियों में शाब्दिक टोह के जिज्ञासु
जो अनाम होकर भी रोशनी के निवाले गटकने को तत्पर थे
सच कहूँ तो उस समय
उठती गिरतीं
चलती फिरतीं आवाज़ें भी शोध का विषय लगी
मध्य कतारें अपने होने का मतलब
आगे की सीटों की पीठ पर ढूँढ़ रही थीं
और समझ चुकी थीं
कि ये उजाला अपने चेहरे पर देखने के लिए
विचारों का गाँधी हो जाना ज़रूरी है ...