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सपनों का दोष नहीं / प्रांजलि अवस्थी

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सपनों का दोष नहीं
कि वह जी जाते हैं
तुम्हारी परिकल्पनाओं को
इच्छाओं को
या फिर मर जाते हैं
तुम्हारे यथार्थ से जूझते जूझते

इनकी तो अपनी एक अलग दुनियाँ होती है
जिसमें जमीं सिर पर और आकाश पैरों तले होता है

एक रंगीन शहर होता है
जिसमें सुनहरी रोशनी में चमक उठते हैं
 पलकों के किनारों से झरते
सभी दुः स्वप्न
जो खो रहे हैं, टूट रहे हैं
या किनारों पर से चटक चुके हैं

ये सब जाग उठते हैं,
आलिंगन के बाहुपाश से निकल कर
 एक दूसरे की उंगलियों में उंगली फँसा,

चूमते हैं आकर पलकों को
रख देते हैं अपने पल-पल का हिसाब
कितनी साँसे भरीं और कितनी भरना चाहते हैं

जीना (तुम्हारा) और जीवित रहना (स्वप्नों का)
 ये दो फ़कीरों के तपस्या करने का
अपना अपना तरीका है

सपनों का दोष नहीं
अगर ये चाहते हैं कि चिरकाल तक युवा बने रहें