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सहमा मन / मनीष मूंदड़ा
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शाम से मन सहमा-सहमा सा
कमरे की चारदीवारी में
ना जाने क्यूँ तुम्हारा इंतजार करता रहा
कभी मेरी टूटी मेज पर सर टिकाता
तो कभी खिड़की की टूटी सिखचों से
बाहर के रास्ते को तकता
कभी पुरानी बिखरी किताबों के ढेर में
हमारी छुपी कहानियों को टटोलता
मेरा कमरा
जो कभी हमारा घर हुआ करता था
उसकी मटमैली दीवारों पर
टंगी तुम्हारी उस तस्वीर को
अपनी नजर करता
बार-बार
पलंग पर लेटा हुआ मैं
छत पर बन्द पड़े पंखे की डैनों पर लगे
मकडजाल को देखता
बिना कुछ कहें
मेरा मन
बस यूँ ही सहमा-सहमा सा
चुप-चाप मेरे पास बैठा रहा
ना जाने क्यूँ
कल अचानक
पूरी शाम
तुम्हारे घर वापस लौट आने का इंतजार करता रहा।