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हाथ की लकीरें / मनीष मूंदड़ा

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हमेशा में अपने हाथों की लकीरो को देखता
और उनसे पूछता
मेरे भाग्य की रेखा कैसी हैं
क्या मैं वह सब कुछ कर पाऊँगा
जो मैं सपनो में देखता हूँ
लकीरें खामोश मुझे देखती
मैं हर वक़्त नई संभावनाओं को उनमें तलाशता

मेरी हथेली पर फैले इस मकडजाल में
खुद को मेरे सपनो के साथ बुनता रहता
कई लकीरें मेरे साथ आज तक कायम हैं
कुछ समय की रेत में कही धूमिल हो गयी हैं

आज भी में अपने दोनों हाथो को सामने रख कर
कुछ सवाल पूछता रहता हुँ
सपने जो पूरे हुए हैं
उनकी बात करता रहता हूँ
कुछ नई आशाओं के जाल बनते जो मुझे नजर आते हैं
उन्हें साकार करने का रास्ता ढूँढता रहता हूँ
इन लकीरों के जंगल में वह पगडण्डी ढूँढता रहता हूँ
जिस पर चलकर मैं तुम तक पहुँच सकूँ।