भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रिश्तों की दरारें / मनीष मूंदड़ा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:32, 21 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीष मूंदड़ा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिश्तों में दरारें
अब साफ नजर आती है
कल तक बिना बोले मन की तकलीफ भाँप लेते थे
आज चीख़ें कहीं दब गई दरारों में
वो अपनों के बीच का सन्नाटा
अब ख़ामोशियाँ हैं दरारों में
कभी धड़कन पास होती थी एक दूसरे के
अब नफरत है दरारों में
कभी हँसते गाते खिलखिलाते शोरगुल थे
अब चुप्पी भरी पड़ी है दरारों में
कभी शाम की चाय होती थी हाथों में
अब शामों का अँधेरा बसता है दरारों में
तुम भी टूटो
मैं भी टूटूँ
आओ टूट कर मिट्टी हो
भरदें इन दरारों को...