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जाने क्युँ / मनीष मूंदड़ा

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अब शामें कहाँ ढलती है...
बस रात के एकल सफ़र का आगाज होता है।
अब रातों को नींद कहाँ आती है...
बस सुबह का इंतजार होता है।
अब रातों से डर-सा लगता है...
सपनों की जगह ख़ौफ पलते हैं
मेरे अंदर, मेरे करीब।
आँखों में भी अब फीकी रोशनी की चिलमन है।
दिन का उजाला भी कहा साफ नजर आता है।
जाने क्यूँ...
दिन रात अब मेरे पास एक उदास इंतजार रहता है।