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हादसा / संतोष श्रीवास्तव

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मेरा जन्म
एक हादसा माना गया
लड़की बन जन्मी न
न थाली बजी,
न लड्डू बंटे
मेरे लिए
दूध, घी, पढ़ाई,
उठना बैठना,
हंसना बोलना
सब में
कटौती कर दी गई
जायज को
नाजायज ठहरा
मुझे नकार दिया
फिर हुआ यूं कि
हादसे को वरदान मान
मैंने आकाश छुआ
पाताल में गहरे उतरी
हर उस जगह
अपने पैर जमाए
जिसकी हदें
पुरुषों तक
सीमित थी
आंधियों को
ललकारा
बिजलियों को
गले लगाया
बड़ी नम्रता से
जिंदगी की
दुश्वारियों पर
हस्ताक्षर किए
अब माँ नहीं कहती
कि तू एक हादसा है