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जंग जारी है / संतोष श्रीवास्तव
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डूबती नाव की तरह मैं ज़िन्दगी के समँदर में ऊबती, डूबती रही कभी कोनों को पकड कर डूबने से बचती कभी बेसहारा-सी
लहरों की मर्ज़ी का शिकार हो जाती कभी उत्ताल तरंग पर सवार हो
विजयी हो
अपने ही कंधों पर बैठ इठलाती कभी तेज़ लहर पाताल तक खींच ले जाती मैं हाथ पैर मारकर ऊपर आ जाती इस जद्दोजहद में कितनी ही बार खुद को टूटा, बिखरा पाती सतह पर शाँत
बहते रहने के लिये मुझे खुद को
काठ करना पडेगा और मुझे काठ होने से इंकार है मेरी जंग अब भी जारी है