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वहम / विजय राही

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मैंने जब-जब मृत्यु के बारे में सोचा
कुछ चेहरे मेरे सामने आ गये
जिन्हे मुझसे बेहद मुहब्बत है।
हालांकि ये मेरा एक ख़ूबसूरत वहम भी हो सकता है
पर ये वहम मेरे लिए बहुत ज़रूरी है।

मैं तो ये भी चाहता हूँ-
इसी तरह के बहुत सारे वहम
हर आदमी अपने मन में पाले रहे।
गर कोई एक वहम टूट भी जाये
तो आदमी दूसरे के साथ ज़िंदा रह सके।

बच्चों को वहम रहे कि-

इसी दुनिया में है कहीं एक बहुत बड़ी खिलौनों की दुनिया

वो कभी वहाँ जायेगें और सारे खिलौने बटोर लायेंगे।
बूढों को वहम रहे कि
बेटे उनकी इज्जत नही करते
पर पोते ज़रूर उनकी इज्जत करेंगे।

औरतों को वहम रहे कि
जल्द ही सारा अन्याय ख़त्म हो जायेगा।
किसानों को वहम रहे कि
आनेवाली सरकार उनको फसल का मनमाफ़िक मूल्य देगी।
मजदूरों को वहम रहे कि
कभी उनको उचित मजदूरी मिलेगी।

सैनिकों को वहम रहे कि
जल्द ही जंग ख़त्म होगी
और वो अपने गाँव जाकर काम में पिता का हाथ बँटायेंगे।
बेरोजगारों को वहम रहे कि
कभी उनकी भी नौकरी होगी,
जिससे वो दे सकेंगे अपने परिवार को दुनियाभर की ख़ुशियाँ।

आशिकों को वहम रहे कि
कभी उनकी प्रेमिका उनको आकर चूमेगी और कहेगी…
“मैं आपके बिना ज़िंदा नही रह सकती !”