भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूलों के मेले में / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:51, 29 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पापा के संग पार्क गई थी,
लगी झूलने झूले में।

दौड़-दौड़ कर लगे झुलाने,
पापाजी थे झूला।
धक्का मार-मार कर झूला,
आसमान में ठेला।
आसमान में चिड़ियों से कीं,
बातें निपट अकेले में।

चिड़ियों से मिलकर वापस मैं,
जब धरती पर आई।
क्यारी के फूलों की मीठी,
बोली पड़ी सुनाई।
छोड़-छाड़ कर झूला पहुँची,
इन फूलों के मेले में।

फूलों का मेला क्या ये तो,
था मस्ती का सागर।
किया गुलों के सब झुंडों ने,
स्वागत, गीत सुनाकर।
गीत सुनाकर सब फूलों ने,
मुझे ले लिया गोले में।

सभी फूल हंसकर बोले, हो,
तुम परियों की रानी।
हमें सुनाओ परी लोक की,
कोई अमर कहानी।
अब तो मैं घबराई, सोचूँ,
पड़ गई कहाँ झमेले में।