भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोहरा कितना घना है / नमन दत्त

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:09, 31 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नमन दत्त |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फ़िज़ा में कोहरा कितना घना है।
निकलने से ये पहिले सोचना है।

लहर के सामने टिक पायेगी क्या?
जो पानी पर सजाई अल्पना है।

न घूमो जिस्म लेकर काग़ज़ों के,
प्रबल बरसात की संभावना है।

कहीं क़ालीन गंदे हों न उनके,
हमारा पाँव कीचड़ में सना है।

तेरे ख़्वाबों की परियाँ गुनगुनाएँ,
इसी ख़ातिर उमर भर जागना है।

सिमटता जा रहा हूँ आप ही में,
यूँ हर पल ख़ुद से अपना सामना है।

जुदा हो जायेंगे रस्ते हमारे,
धरी रह जायेगी जो योजना है।

मुझे बरबाद करके क्या मिला है,
कभी मिल जाएँ वह तो पूछना है।

दुआ घनघोर बारिश की न माँगो,
ये सारा गाँव मिट्टी से बना है।

गले तक आ गया "साबिर" ये पानी,
हर इक सूरत तेरा तय डूबना है।