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शेष है संभावनाएँ / प्रगति गुप्ता

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शायद
जब खोने लगता है
वो भरोसा जिसके तहद
कोई रिश्ता मरुथल-सी प्रेम धरा पर
अंकुरित हो पल्लवित होता है...
जिसके पल्लवन में
जाने कितने भावों ने सींच उसे,
वृक्ष-सा खड़ा किया होता है...
नन्ही-नन्ही कोपलें पत्तियों की हो या
उन पर खिलती कलियों की
जिन्होने वयस्क होते
इस रिश्ते को विस्तार दिया था।
इनके प्रेम की छावं तले
जाने कितने आते-जाते
पंछियों का भी आशियाँ बन
इसी प्रेम वृक्ष की छांव तले
उस अनंत प्रेम की अनुभूतियों को
सहेज सहेजकर रखना
सिर्फ उनका ही होना था...
घने वृक्ष की छाया में न जाने कब,
अहम की दीमक ने घात लगाई,
उनको अंदेशा भी न हुआ था...
प्रेम और स्नेह की सुधि जागती भी कैसे
यह उनकी प्रवृत्तियों का
कभी हिस्सा जो न था...
चूंकि सम्भावनाओं की प्रवृत्ति
कभी ठूंठ बनने की होती ही नही
सो उम्मीदों की कोपलें उनमें
निरंतर ही फूटती रही
और प्रेम खत्म होता नहीं कभी
कुछ ऐसी-सी आस
जीवनपर्यंत जगती रही...
फ़ितरत हो जिसकी दीमक-सी
अंदर ही अंदर खोखला करने की
चिटकते ही भरोसा
सब उलट विचारों का
संदों से आता जाता रहा...
चूंकि पहले अंकुरण से जुड़ी
भावों की मिट्टी
इतनी सौंधी और गीली थी
कि बाँध रखा था, रिश्ते को उसी ने
जहाँ से उम्मीदों की
कोपलें फूटने को अब भी
हमेशा कि तरह आतुर ही थी...