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रस्म हम ज़िन्दगी की निभाते रहे / रंजना वर्मा
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रस्म हम ज़िन्दगी की निभाते रहे।
लोग आते रहे लोग जाते रहे॥
फेर तुम मुँह गये हम तड़पने लगे
थाम कर दिल मगर मुस्कुराते रहे॥
चाँद निकला हुई मदभरी चाँदनी
लाज से मुँह अँधेरे छुपाते रहे॥
अश्क़ तो ये कहा मानते ही नहीं
वक्त बेवक्त आँखों में आते रहे॥
कर रहे कोशिशें भूल जाएँ मगर
और शिद्दत से तुम याद आते रहे॥
थे मुक़द्दर जिन्हें हम समझते वही
आरजू ख़्वाब में भी मिटाते रहे॥
खूब पत्थर रहे मारते लोग पर
सर वह सरहद पर अपने कटाते रहे॥