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एक दीप तुम अगर जला दो / रंजना वर्मा

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एक दीप तुम अगर जला दो
मैं दीपों की पांत सजा दूँ।
घोर अमा कि अँधियारी को
अमर ज्योति की रात बना दूँ॥
एक दीप तुम अगर जला दो॥

उपवन में है फूल खिल उठे
कोकिल कहीं पुकार उठी है,
नाच उठा वन में मयूर
पापी पपिहे की प्यास जगी है।

चातक के संग तुम गा दो तो
तारों की बारात सजा दूँ।
खद्योतओं के हार पिरो कर
अपने प्रियतम को पहना दूँ।
एक दीप तुम अगर जला दो॥

धरा हो गई तृप्त अंकुरों
के मिस उर का प्यार जगा है,
हरियाली का पत्ता-पत्ता
पुलक भरा विहँसित उमगा है।

एक बार तुम मुसका दो तो
मैं हर सोई साध जगा दूँ।
अरमानों की दुल्हन को फिर
आशा कि चूनर पहना दूँ।
एक दीप तुम अगर जला दो॥

मधुर प्रेम वंशी तुम फूंको
प्रकृति वधू के संग मैं नाचूँ,
हर लय ताल छंद पर फिर मैं
वादों का हर कंपन जाँचूँ।

सौंपो तुम विश्वास मुझे तो
मैं तुम पर संसार लुटा दूँ,
अमर अर्चना में पूजा कि
प्राणों का हर तार जला दूँ।
एक दीप तुम अगर जला दो॥