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युद्ध मकान का कोपल / ओम व्यास

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जबसब बच्चे मैले कपड़ों में
धूल से सने हुए
कंचे / भवरें / पतंगों
की लड़ाई लड़ते थे
तब मैंने
एक छत को खड़ी रखने
के लिए या ज़िन्दगी को धूप से बचाने के लिए
अपने
बचपन सपने / भँवरे कंचे पतंग
सबगहरे उतार दिए
उस मकान की नींव में
जिसे मैं 'घर' बनाना चाहता था,
अपनी बचकानी कल्पनाएँ संजोकर।
आज
बरसों बाद
मन की बंजर जमीन पर
प्रस्फुटित हुई एक "कोपल"
आस्था और नेह से,
देने को
सघन आत्मीयता कि छाया
और अब
देखता हूँ मैं
प्रतिवाद
मजबूती से खड़ी
मकान की छत का
कमजोर कोपल के खिलाफ
सब कुछ सर जमीन कर
कमजोर कंधों पर टीके रहे
'मकान' का आत्मविश्वास
आक्रोश की भाषा
क्यों बोल रहा है?
शायद अनुभवों का बस्ता
एक नवानुभव की परत
खोल रहा है।
और मैं।
मुक जी रहा हूँ...
एक अन्तद्रन्द