भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दाल मूँग की दलने दो / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:58, 14 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुसूदन साहा |अनुवादक= |संग्रह=ऋष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दुश्मन की छाती पर हमको,
दाल मूँग की दलने दो!
कोई हमें न हाँक लगाये,
किसी वजह से हमें बुलाये,
धरती की है आन बचानी,
झंडे की है शान बचानी।
अपनी मंजिल पा जाने तक,
नये जोश में चलने दो।
हमको आगे बढ़ना है,
हर चोटी पर चढ़ना है।
खाई-खंदक नद नाले,
चाहे पथ में जो आ ले।
तप्त रेट में पाँव जले तो,
बिना झिझक के जलने दो।
बाधाओं से डरना क्या?
बिन मारे ही मरना क्या?
हर दुश्मन को मारेंगे,
कभी नहीं हम हारेंगे।
टलते हैं जो काम ज़रूरी
उन्हें आज तुम टलने दो!