Last modified on 24 अप्रैल 2020, at 22:04

अंधेरा और सूरज / शिव कुशवाहा

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:04, 24 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिव कुशवाहा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उदयाचल से
आहिस्ता आहिस्ता
सरकता हुआ सूरज
क्षितिज पर
ठहरकर निहारता है
अंधेरे के भग्न अवशेष।

छांटता हुआ
तमस-आवरण
भेद देता है
अंधेरे का अंतस्तल
निर्मिमेष झांकता बढ़ता है
किंतु अंधेरे का राज्य अब भी
बना हुआ अप्रमेय।

सूरज की चमचमाती किरणें
अब तक
नहीं ढहा पायीं
अंधेरे के दुर्गम किले।

अंधेरा अनुच्चरित होकर भी
बजाता है अपनी विजय तूर्य
अस्तित्व के इस महादमनीय युद्ध में
अंधेरा लगा देता है
अपनी पूरी ताकत।

अंधेरा और सूरज
अस्मिता कि
आभ्यांतरिक तह पर पहुँच
करते हैं द्वंद्व युद्ध।

अप्रतिहत विजयकामी सूर्य
चल देता है
अस्ताचल की यात्रा पर
निस्तेज हो
देखता जाता है
अंधेरे का विराट साम्राज्य...