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कविता में बचा रहेगा आदमी / शिव कुशवाहा
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धुंध के अपारदर्शी पर्दे में
फीकी पड़ चुकी चेहरों की रंगत
आंखों के सामने मटमैले बिम्ब
और चेतना में धुंधले अक्स
उघाड़ते हैं अनसुलझे रहस्य
पिघलते हुए ग्लेशियर की तरह
अब मनुष्य की संवेदना भी
धीरे धीरे बह रही है
दरक रहे बाँध के पास
अब भी मौजूद है
वर्जनाओं का पूरा इतिहास
अब यह कहना
कि सच से मुखातिब होना
समय के साथ न चलने के मानिंद
बनकर कर रह गयी है
मनुष्यता कि अधूरी दास्तान
मानव सभ्यता के
खत्म होने के
आखिरी पड़ाव पर भी
शब्दों में बची रहेगी दुनियाँ
और कविता में बचा रहेगा आदमी...