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कंधों पर बैठे हुए लोग / शिव कुशवाहा
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लीक की सीध पर
कुछ धुंधला सा अक्स उभर आने पर
दीखती है कविता मुझे
कंधे पर लटकाए
कुछ अनकहे से खुरदरे शब्द
जो उधेड़ देते हैं
मन के भीतर बसे
अभिव्यक्ति के कोरे कैनवास को...
जहाँ चलना ही जीवन की
न खत्म होने वाली चिरंतन क्रिया है
इसके बनिस्बत कि दुनियाँ का हर आदमी
यही सोचता है
कि कंधे पर बैठकर लोग निकल जाते हैं आगे
छोड़ देते हैं अपना अवलम्ब।
कंधों पर बैठे हुए लोग
ज़रूरी नहीं
कि ढो रहे हों इस नाजायज समय को
लड़खड़ाते कदमों के पदचाप
सुनते हुए
वे कंधों से उतरकर
थाम लेते हैं
मजबूत इरादों के साथ गिरते हुए शिखर...