एक ही आस / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
11
ओ मेरे मन !
बन्द द्वारों में छुपी
ईर्ष्या -नागिन।
12
व्यर्थ समृद्धि
प्राण हैं हलकान
बची थकान।
13
सत्य न दिखा
हर द्वार जाकर
झूठ ही लिखा।
14
दुर्बोध लिपि
केवल वही पढ़े,
जो सृष्टि गढ़े।
15
थामे रहना
आशाओं का आँचल
टूटेगा छल।
16
सबको मिटा
जीने की लालसा में
कोई न जिया।
17
खुलेंगे द्वार
टूटेंगे ये पिंजरे
रहना मौन।
18
सूने नगर
बदहवास बाट
हँसे मसान।
19
मोह के पाश
टूट गए पल में
अन्तिम यात्रा।
20
एक ही आस
तेरे नेह का पाश
छीन न लेना।
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|रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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11
ओ मेरे मन !
बन्द द्वारों में छुपी
ईर्ष्या -नागिन।
12
व्यर्थ समृद्धि
प्राण हैं हलकान
बची थकान।
13
सत्य न दिखा
हर द्वार जाकर
झूठ ही लिखा।
14
दुर्बोध लिपि
केवल वही पढ़े,
जो सृष्टि गढ़े।
15
थामे रहना
आशाओं का आँचल
टूटेगा छल।
16
सबको मिटा
जीने की लालसा में
कोई न जिया।
17
खुलेंगे द्वार
टूटेंगे ये पिंजरे
रहना मौन।
18
सूने नगर
बदहवास बाट
हँसे मसान।
19
मोह के पाश
टूट गए पल में
अन्तिम यात्रा।
20
एक ही आस
तेरे नेह का पाश
छीन न लेना।