भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़ालिब / भारत यायावर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:34, 1 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारत यायावर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
एक बूढ़ा फ़कीर
ठण्ड से भीगी सुबह में
टनटनाता दिख गया था
मैंने पूछा —
मर जाने के बाद भी
घर क्यों नहीं जाते ?
खिलखिलाता हंस पड़ा वह —
कौन जाता है ग़ालिब
इन गलियों को छोड़कर !
मैंने पूछा
क्या रखा है
इस असार संसार में ?
सम में समाहित सार ही संसार है
जब था ख़ुदा था
अब ख़ुदी हूँ
तलाशता फिरता हूं
होने, नहीं होने को
जब तक मेरे अल्फ़ाज़ हैं
मैं हूँ
रहूँगा इन्हीं गलियों में भटकता
और भी कहता बहुत-कुछ
चल पड़ा वह
इन्हीं गलियों में
कहीं जा खो गया !
और उसकी छाया
आज भी
मेरे अन्तस में
समाहित
ग़ज़ल कोई गुनगुनाती है