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एक नास्तिक के प्रार्थना गीत-4 / कुमार विकल
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प्रभु जी,मुझको नींद नहीं आती है
एक शराबी कविता मुझको
रात—रात भर भतकाती है
सूनी सड़कों,उजड़े हुए शराब खानों में
अक्सर मुझको धुत्त नसे मेम छॊड़ अकेला
जाने कहाँ चली जाती है.
प्रभु जी ! यह तब भी होता है
जबकि मुझको ठीक पता है
यह तो वर्ग शत्रु कविता है
मुझको भटकाना ही इसका काव्य—धर्म है
मुझको आहत करना इसका वर्ग कर्म है.
फिर भी इसके एक इशारे पर मैं खिंचता ही जाता हूँ
बार—बार आहत होता हूँ
बार—बार छला जाता हूँ.
प्रभु जी, मुझको ऐसा बल दो
तोड़ूँ मैं इस मोहक छल को.