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वर्ष नया / अजित कुमार
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कुछ देर अजब पानी बरसा ।
बिजली तड़पी, कौंधा लपका …
- फिर घुटा-घुटा सा, घिरा-घिरा
- हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा ।
बादल जब पानी बरसाये
तो दिखते हैं जो,
वे सारे के सारे दृश्य नज़र आये ।
- छप-छप,लप-लप,
- टिप-टिप, दिप-दिप,-
- ये भी क्या ध्वनियां होती हैं ॥
सड़कों पर जमा हुए पानी में यहां-वहां
बिजली के बल्बों की रोशनियां झांक-झांक
सौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं।
यह बहुत देर तक हुआ किया …
- फिर चुपके से मौसम बदला
- तब धीरे से सबने देखा-
हर चीज़ धुली,
हर बात खुली सी लगती है
जैसे ही पानी निकल गया ।
- यह जो आया है वर्ष नया-
वह इसी तरह से खुला हुआ ,
वह इसी तरह का धुला हुआ
बनकर छाये सबके मन में ,
लहराये सबके जीवन में ।
दे सकते हो ?
--दो यही दुआ ।