भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग्रीनरूम / अजित कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:03, 9 सितम्बर 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजित कुमार |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार }} जह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,

जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि

कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।

जहाँ से दृश्य नए खुलते—

वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।


याद अब भी मुझको वह रात,

बहुत दिन पहले की यह बात…

एक नाटक होते देखा :
और अभिनय की हर रेखा
मुझे रँगती-सी चली गई ।
बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
सोचकर, उठा और चल दिया ।


अचानक वहीं पार्श्व में दिखा

द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।

झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-

ज्ञात था किसे ।

कि

श्री की होगी ऐसी राह ।

रँगे जाते थे चेहरे ।

आह ।

जान मैं गया,

जान मैं गया कि:

मुद्रा, अंग-भंगिमा,

गति, लय, भावावेग ,

हास उन्मुक्त, और उद्वेग—

सभी की रचना का यह केन्द्र ।

सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।


तभी से कुछ ऐसा हो गया

कि हर सज्जागृह के

दरवाज़े से ही

मैं वापस आ गया ।


जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,

जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,

वहां तक जाकर मैं थम गया ।


नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘

नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘

और

इस उलझी-सुलझी यात्रा का

था जहां आखिरी ठौर :

वहां तक पहुंचा-

मुड़ आया ।