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गएराति / दुर्गालाल श्रेष्ठ

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गएराति यस्तो मैले
देखेँ सपनामा,
यत्ति राम्रो थियो कि त्यो
कत्ति भनूँ आमा !

यौटा गाउँ, दायाँबायाँ
झुपडी ससाना,
झललल सुन-सुनै
परालका छाना !

झुल्किँदै थ्यो छिर्के परी
बिहानको घाम,
लटरम्म बोटैभरि
असर्फीका दाम !

फूलै फूल जहाँतहीँ
फुलेजस्तै आस,
गाँवैभरि मगमग
पसिनाको बास !