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मध्य मार्ग / नीरज नीर

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आज सुबह से ही ठहरा हुआ है,
कुहरा भरा वक्त
न जाने क्यों,
बीते पल को
याद करता
डायरी के पलटते पन्ने सा,
कुछ अपूर्ण पंक्तियाँ,
कुछ अधूरे ख्वाब,
गवाक्ष से झांकता पीपल,
कुछ ज़्यादा ही सघन लग रहा है।
नहीं उड़े है विहग कुल
भोजन की तलाश में।
कर रहे वहीँ कलरव,
मानो देखना चाहते हैं,
सिद्धार्थ को बुद्ध बनते हुए.
बुने हुए स्वेटर से
पकड़कर ऊन का एक छोर
खींच रहा हूँ,
बना रहा हूँ स्वेटर को
वापस ऊन का गोला।
बादल उतर आया है,
घर के दरवाजे पर
मुझे बिठा कर परों पर अपने
ले जाना चाहता है।
एक ऐसी दुनिया में
जहाँ
प्रकाश ही प्रकाश है
जहाँ बादल छांव देता है
अंधियारा नहीं करता।
बगल की दरगाह से
लोबान की महक का
तेज भभका
नाक में घुसकर
वापस ला पटकता है
कमरे की चाहरदीवारी के भीतर ...
दीवार पर टंगी है
तुम्हारी एक पुरानी तस्वीर
जो आज भी लरजती है ख़ुशी से
हाथों में पकड़े मेरा हाथ ।
नहीं यशोधरा, मैं नहीं करूँगा
निष्क्रमण।
मैं बढूँगा अंतर्यात्रा पर
पकड़े हुए तुम्हारा हाथ।
मैंने चुना है अरण्य एवं लावण्य के बीच
एक मध्य मार्ग ।