मुमकिन है / कुमार राहुल
जिन्दगी की उदास ख़ास शामों में
ग़र मैं सोचूं
कि हो रही होगी तुम भी उदास
तो मुमकिन है
कि ग़ैर वाजिब हो सब सोचना मेरा
मुमकिन है
कि लम्स के हर लम्हे
को रख कर किसी संदूक में
गयी होगी सब भूल
मुमकिन है
वक़्त ने भर दिए हों
आँखों के
सब काले साए
मुमकिन है
बे-आरज़ू-सी इक आरज़ू में
हुए हों कितने ही सफ़ीने बे-किनार
मुमकिन है
नज़्मों की एक डायरी
पड़ने लगी हो
कहीं कहीं से ज़र्द
मुमकिन है
तारिख़ के हर किस्से से
मिटाया गया हो कोई पहलू
मुमकिन है
रिवायत के रिश्तों ने
घोंटे हो
अनगिन ख़्वाबों के गले
मुमकिन है
वजूद के आईने में
पड़े हों कुछ बाल
मुमकिन है
हवाओं से खरोंची गयी हो
कुछ नमी
मुमकिन है
सर गुज़स्ती को
जोड़े गयें हो नए नाम
मुमकिन है
बे-नंगो नाम-सी
इक आरज़ू ने
डाली हो नयी पैरहन
मुमकिन है
हू-ब-हू हो
इसी तस्वीर के दुनिया
या कि मुमकिन हो
ग़ैर मुनासिब
ग़ैर वाजिब
ग़ैर-ए-हर्फ़ हो
सब सोचना मेरा
जिन्दगी की उदास ख़ास
शामों में
ग़र मैं सोचूं