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दिवास्वप्न / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

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दुःख को उछालना चाहती हूँ
जैसे हवा में उड़ा दिया था दुपट्टा
बिना सोचे कि मेरे खुले सीने पर
तुम्हारी निगाहें टिकी हैं
मैं तुम्हारे इर्दगिर्द ओढ़नी का
बंदोबस्त करना चाहती हूँ

लुड़काना चाहती हूँ
महावर से भरा कटोरा
सुन्दर लकीरें चौड़ी कर सकूँ
भर-भर कर रंग सकूँ तुम्हारे
हाथ-पांव
आखिर कब तक तुम लहू से
रंगते रहोगे अपने हाथ
आओ
अबीर मल दूँ तुम्हारे चेहरे पर
गुलाल से भर दूँ तुम्हारी मांग
जानते हो क्यों?
केवल मैं ही कमसिन नहीं रहना चाहती
थोड़ा-सा तुम्हें भी नाजुक देखने की
ख्वाहिशें उमड़ रहीं हैं

अपने जूड़े में नहीं खोंसना चाहती
कोई गुलाब के फूल
तुम्हारी अंजुरी को भरना चाहती हूँ
हरसिंगार से
ख़ुशबू से भर जाओ और बारूद की
गन्ध से उबर आओ तुम

मेहंदी लगी हथेलियों को
तुम्हारी हथेलियों से चिपका कर
चाहती हूँ कि तुम भी सूँघो
अपनी हथेलियों में देह के एहसास
ताकि तुम मिट्टी के तेल और
जले इंसानी मांस की
गन्ध भूल जाओ

तुम्हें देखूं रंगीन कपड़ो में
मुझे लुभाने की चेष्टा में
आज मुझे खालिस सफेद पैरहन को लपेट कर
सुखों की सुहागन बनना लुभा रहा है
आओ तुम्हें इंद्रधनुष पहना दूँ

नहीं पड़ना चाहती पँखों के प्रेम में
तुम्हें तितलियों के तिलिस्म में
जकड़ना चाहती हूँ
मैं ऐयारी का लुत्फ़ उठाऊँ
और तुम मुझे क़ैदी बनाने के
जुनून से बाहर आओ

अनुग्रह की जगह बोली में अक्खड़पन
संवार लेना चाहती हूँ
और तुम्हारी जीभ पर मिठास का
 दैवीय चमत्कार चाहती हूँ
ये अदलाबदली समझा दे तुम्हें
शब्दों की कैफ़ियत

सोचती हूँ तुम्हें दोबारा से
संवारने का ख़्याल इतना उम्दा
पर पेचीदा क्यों?

आज तुम्हें
मिट्टी का पिंड बनाना चाहती हूँ
दोबारा अपने निर्माता का
आवाह्नन करना चाहती हूँ
थोड़ी अपनी माटी तेरी मजबूत काठी में
गूंथना चाहती हूँ

सम्वेदनाओं की एक जैसी ही
प्राण प्रतिष्ठा चाहती हूँ

कि जब भी तुम थामो मेरा हाथ
मजबूती और कोमलता का संगम
व्याप्त मानसिकता को
नेपथ्य में धकेल
नये आयाम स्थापित करें
सुख और दुःख
समान नियम से संचालित हों!