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शासक और गौरैया / निज़ार क़ब्बानी / विनोद दास

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अपनी कविताएँ पढ़ने के लिए
मैंने अपने अरब मुल्क़ का दौरा किया
मैं इस बात का क़ायल था
कि कविता जनता की रोटी थी
मैं इस बात का भी क़ायल था
कि लफ्ज़ मछली थे
और जनता पानी थी

केवल एक नोटबुक लेकर
मैंने अपने अरब मुल्क़ का दौरा किया
पुलिस चौकी ने मुझे इधर-उधर दौड़ाकर सताया
सैनिकों ने इधर-उधर दौड़ाकर सताया
और आख़िरकार मेरी जेब में था क्या
सिर्फ एक गौरैया ही न
लेकिन अफ़सर ने गौरैया के पासपोर्ट की बाबत पूछा
हमारे मुल्क़ में
लफ्ज़ के लिए पासपोर्ट की ज़रूरत पड़ती है

मैंने पास का इन्तज़ार किया
रेत की बोरियों को घूरते हुए
पोस्टरों को पढ़ते हुए
जो एक मुल्क़ की बात करते थे
जो लोगों को एक होने की बात करते थे
अपने मुल्क़ के मुहाने पर
मुझे बाहर फेंक दिया गया
टूटे हुए शीशे की तरह

अँग्रेज़ी से अनुवाद : विनोद दास