भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सँयुक्त मोर्चा गीत / बैर्तोल्त ब्रेष्त / प्रतिभा उपाध्याय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:01, 29 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= बैर्तोल्त ब्रेष्त |अनुवादक= प्रत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चूँकि आदमी एक इनसान है
(हाड़-मांस का पुतला है)
चाहिए होगी उसे रोज़ी-रोटी
भरेगा नहीं पेट उसका जुमलों से
क्योंकि जुमले कोई भोजन नहीं ।

इसलिए बाएँ क़दम बढ़ाओ, तो बाएँ क़दम बढ़ाओ
वही है स्थान तुम्हारा कॉमरेड,
हो जाओ शामिल कामगारों के सँयुक्त मोर्चे में
क्योंकि हो तुम भी एक कामगार ।

चूँकि आदमी एक इनसान है
(हाड़-माँस का पुतला है)
इसलिए ज़रूरत है उसे कपड़ों और जूतों की
जुमले देते नहीं उसे गरमाहट
और न ही देता नगाड़ा उसे गरमाहट ।
इसलिए बाएँ क़दम बढ़ाओ, तो बाएँ क़दम बढ़ाओ !

चूँकि आदमी एक इनसान है
(हाड़-माँस का पुतला है)
नहीं पसन्द करता वह तमँचा अपने माथे पर
नहीं चाहता वह अपने पैरों तले कोई ग़ुलाम
न ही कोई मालिक अपने ऊपर ।
इसलिए बाएँ क़दम बढ़ाओ, तो बाएँ क़दम बढ़ाओ !

और क्योंकि सर्वहारा है एक सर्वहारा
नहीं करेगा उसे दूसरा कोई आज़ाद
हो सकती है मुक्ति मात्र अपनी मेहनत से ही कामगार की ।
इसलिए बाएँ क़दम बढ़ाओ, तो बाएँ क़दम बढ़ाओ

वही है स्थान तुम्हारा कॉमरेड,
हो जाओ शामिल कामगारों के सँयुक्त मोर्चे में
क्योंकि हो तुम भी एक कामगार ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : प्रतिभा उपाध्याय