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रणकौशल / सुरेश सलिल
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कछुआ धर्म की बात तो बहुत हुई
बहुत रगेदी गई कछुए की चाल भी
किन्तु क्या
कछुए का घेरा हम भेद पाए ?...
कैसी तो सुरक्षा उसके आसपास की!
चरवाहे उठा उठाकर पटकते थे
इस्पाती टोप पर उसके डण्डे भी बरसाते थे
किन्तु पट्ठा टस से मस नहीं होता था
मौक़ा मिलते ही लगा जाता गोता था
नदी या कि ताल में।
कभी कभी रणकौशल कछुए का
बाध्य हमें भी करता
सोचने को दुश्काल में ।