महुआ बीनती सुकुमारियाँ / राम सेंगर
महुआ बीनती सुकुमारियाँ ।
कमर पर झौवा धरे वे
झोर महुओं से भरे वे
गा रही हैं गीत कोई
रुक गया सुन कर बटोही
हंस उठीं सब खिलखिलाकर
भर उठीं सिसकारियाँ ।
हाथ-पाँवों में कड़े हैं
कण्ठ में मूँगे पड़े हैं
भाल पर टिकुली चमकती
सींक नथुनों में दमकती
कर्णफ़ूलों में रहीं फब
वे अनिन्द्य दुलारियाँ ।
वक्ष को नीचे झुकाए
और कूल्हों को उठाए
तीतरी-सी हैं ठुमकतीं
ठौर-ठौर फिरें फुदकतीं
छेड़ इस-उस को रही हैं
मारती किलकारियाँ ।
पोलकों से भभक आती
देह पूरी चिपचिपाती
चैत का तपता महीना
दे रहा यौवन पसीना
दिख रही हैं स्वेद की
खिंचती बदन पर धारियाँ ।
घाघरों को फड़फड़ातीं
छिन उठातीं, छिन गिरातीं
खेल जैसे खेलती हैं
ख़ूब पापड़ बेलती हैं
आस्तीनों से रगड़तीं
गाल हर-हर बारियाँ ।
बावड़ी कोई नहीं है
प्यास भी सोई नहीं है
प्यार से कुछ चुहलुआतीं
रसभरे महुए चबातीं
क्यारियों-सी लहलहातीं
ये हृदय की प्यारियाँ ।
उड़ रहे हैं केश हर-हर
जल रहा है संगमरमर
वक़्त को वे चीन्हती हैं
भूख का हल बीनती हैं
नाज़ है उनको स्वयं पर
धन्य हैं वे नारियाँ ।