पिता 2 / मुकेश कुमार सिन्हा
इन दिनों,
मोबाइल पर बराबर आता है मम्मी का फोन
पहले सामान्यतः मिस्ड-कॉल मिलते थे,
और मैं ही करता था जबाबी कॉल
ठहर कर, अपने सुविधानुसार
कभी-कभी तो वह समय ही नहीं आता
पर नहीं सुनाती मम्मी कि
तुम भूल गए हो!
भूल जातीं थी शायद
पर इन दिनों
अधीर हो उठती हैं
' काहे नहीं उठाते हो रे फोन
तुमसे कुछ मांगते हैं क्या? '
थरथाराती आवाज में सुना देती हैं
फिर आवाज़ में नरमी लाते हुए
बनते-बिगड़ते बुलबुलों की तरह
ना चाहते हुए फट पड़ती हैं
' कल रात से पापा कराह रहे
कह रहे, कहो मिलने आए
बैठल बैठल, पगला रहे हैं
लो करो बात उनसे! '
कड़कते अंदाज़ वाले पापा
की आवाज़
लगती है आती सुदूर से कहीं
धूमिल और भर्राई हुई
बड़का अंगना के
तुलसी चौरा पर जलते हुए दिये की लौ-सी कंपित
झिझके हुए कहते हैं
टूटते-जुड़ते स्वर में
'कब आ रहे हो? अबकी बहुत दिन हुए'
संवाद खिंचता रहता है एकतरफ़ा
अपनी बैचनियाँ की ताबीज़ चमकती अपने गर्दन में पहने
बनियान के अन्दर सीने में छुपाए
'हूँ' , 'हाँ!' 'आराम से रहिये'
जैसे मेरे कुछ बेवजह उद्गार को सुनकर भी
कुछ पलों में ही
मिल जाता है उन्हें चैन!
खरखराते स्वर में फिर कह उठते हैं
' रहने दो अभी,
अभी तो परीक्षा होगा,
या फलाना-ढीमाका कारण वह खुद ही ढूँढ लेते हैं
आखिर समझदारी दिखा देते हैं!
पर अंत फिर से वही करुण स्वर
'जल्दी आना!'
बेहद दूर से
अपने बच्चो से बात करते पापा
बहुत दिनों बाद, बेहद अपने से लगते हैं
हद है यार,
कभी कभी पापा कि आवाज भी अच्छी लगती है!