कितना ख़ुन बह गया है
कविता की कटी हुई नसों से
गन्दी नालियों में गिर गए हैं
कितने ही ऊंचे विचार
शब्द मुर्छित पड़े हैं
औेंधे मुंह फ़र्श पर
कैसी कैसी उपमाएं
कराह रही हैं
काग़ज़ के एक कोने से दबी
कितने बिम्ब टूटे पड़े हैं
टूटी हुई मेज़ के नीचे
कल्पना झूल रही है पंखे से
गले में फंदा डाले
मैंने पहली बार देखा है
इतना भयानक सपना !