जेठ के टहटहात
भरल दुपहरिया में
जरत अवाज मारत
‘‘घुघनी लेले, घुघनी’’ कहत
चिंचियात आवस
‘‘रामू काका घुघनी वाला’’
देह के फाटल कुर्ता पर
कईगो पेवन साटल
मू ँड़ी से गोड़ ले
पसेना से नहाइल
आपन चीकट लाल गमछा से
पसेना पोछत
झनझनात आवस
रामू काका
अवाज सुनते
लइकन में मचे खलबली
माई हमरा घुघनी चाहीं
बबुओ रे खुदरा नईखे
हमरा चाहीं, मन े चाहीं
आ ठमक जास रामू काका
मत दीहऽ खुदरा नइखे
मलकीनी, ना हम भागेम
ना भागी ई घर
घुघनी दे देत बानी
‘‘हिसाब होई बाद में
राखेम अपना इयाद में ’’
बाह रे, रामू काका
घुघनी खातिर छछनत मन पर
घुघनी के फाहा धर के
उधार घुघनी से
मन कीन े वाला, रामू काका
तहार इयाद
तहरा घुघनी खानी
आजो चटकार बा ।