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कविता तुम! / कुमार विमलेन्दु सिंह

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तरंगिणी ही जैसी हो
'कविता' तुम भी
उच्चतम स्त्तर पर
विमल, श्वेत, ठोस

उष्णता आवश्यक होती है तुम्हें
गति के लिए
और प्राप्य भी है तुम्हें वह
तुम भी भावनाओं से शब्दों में
बदलती हो
जैसे हिम बदलता है
जल बूंदों में
तरंगिणी बनने से पहले
जब भर चुका होता है
भावों से ह्रदय
तब बदलते हैं यह भाव
शब्दों में
ठीक वैसे ही
जैसे हिमखंड कोई वृहद
पिघलता है
सघन जलराशि बन जाता है
वेग भी ग्रहण करता है
लेकिन, निर्मल ही रहता है
जब तरंगिणी बनकर
सब के लिए सुलभ हो जाता है
हिमखंड
ना तो श्वेत रह जाता है
ना निर्मल
हाँ, सब देख पाते हैं उसे
स्पर्श कर पाते हैं उसका
पर मलिन हो जाती है
जल राशि
और कालांतर में लुप्त भी

हिमखंड बने रहते हैं
वही ऊंचाई पर
अकेले
किसी का स्पर्श नहीं मिलता
दृष्टि भी नहीं पहुँचती सबकी
लेकिन बनी रहती है
निर्मलता और उज्जवलता
'कविता' तुम्हें भी
तरंगिणी के जैसा ही होना चाहिए
श्रद्धा के प्राप्ति की आशा में
मलिन होने की संभावना
सदैव होगी
तुम्हें इससे बचना चाहिए