Last modified on 14 सितम्बर 2008, at 18:15

श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति / सुमित्रानंदन पंत

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:15, 14 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत }} छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर पर्वत कारा

अचल रूढ़ियों की, कवि! तेरी कविता धारा

मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर-सी नि:सृत--

गलित ललित आलोक राशि, चिर अक्लुष अविजित!

स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मंदिर

शिल्पि, बनाया,-- ज्योति कलश निज यश का घर चित्त।

शिलीभूत सौन्दर्य ज्ञान आनंद अनश्वर

शब्द-शब्द में तेरे उज्ज्वल जड़ित हिम शिखर।

शुभ्र कल्पना की उड़ान, भव भास्वर कलरव,

हंस, अंश वाणी के, तेरी प्रतिभा नित नव;

जीवन के कर्दम से अमलिन मानस सरसिज

शोभित तेरा, वरद शारदा का आसन निज।

अमृत पुत्र कवि, यश:काय तव जरा-मरणजित,

स्वयं भारती से तेरी हृतंत्री झंकृत।