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तुम झूठ कहते हो / विकास पाण्डेय

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तुम झूठ कहते हो
निस्तब्ध कड़कड़ाती ठंढी रात्रि में
कि आज ठंढ कम है
और कम्बल बहुत गर्म।

तुम झूठ कहते हो
ईंट गिरने से बने
तुम्हारे टखने के घाव के लिए
कि अब दर्द कम हो रहा है
और कल की मजूरी से खरीदोगे दवा।

तुम झूठ कहते हो हमारे बच्चों से,
दशहरा का मेला घुमा लाने की बात।
झूठा वादा करते हो उनसे
मजेदार खिलौने मोल देने का।

तुम झूठ कहते हो मुझसे
कि इस बार एक साथ लाओगे
पूरे महीने का राशन
और मेरे लिए नई साड़ी।

मैं नहीं चाहती
तुम्हारे इस असत्य पर
कभी सत्य की विजय हो।