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स्वप्न / विकास पाण्डेय

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कितना कठिन कार्य है
स्वप्न में घटित घटनाओं के तार
क्रमवार जोड़ना!

स्वप्निल सुनहरी घाटी में,
तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठा मैं,
अपने चरम पर है नीरवता।
सभी पादप
संभवतः कई दिनों का हलचल
स्वयं में समेटे
शांत बैठे हैं मेरे साथ।

अचानक,
असीमित आकाश का नीला रंग
पूरी घाटी में पसर गया है।
आसपास के सभी पत्थर
उड़ने लगे हैं
तितलियाँ बनकर।
अब सारी तितलियाँ
फूल हो गई हैं
और मुस्कुराने लगी हैं
पौधों की टहनियों पर लगकर।

पहाड़ी की पगडंडी पर
तुम्हारे चपल, सधे कदम,
जैसे उतर रही हो
संवेदनाओं का सलिल लिए
त्वरा से परिपूर्ण नदी।

तुम्हारे निकट आते ही,
धीमी हो गई हैं
घड़ी की सभी सूइयाँ।
दो दूरस्थ पहाड़ियों में
अभिसरण होने लगा है।
अब पवन तीव्र है और
नारियल के दो पेड़
ऐसे झुक आए हैं सन्निकट
कि बातें कर रहे हों, दो व्यक्ति।

सूरज तेजी से नीचे उतरकर
छिप गया है पर्वतों के पीछे।
उसे भी अभिरुचि है हमारी बातों में।

तुम बोलती जा रही हो
और मैं देख रहा हूँ उन दो पहाड़ियों को,
जिनमें से एक बदल रही है
मोनालिसा जैसी किसी कलाकृति में,
पर सुखद आश्चर्य!
उसकी गोद में एक शिशु भी है।

झनझनाने लगी है घड़ी,
बिजली के पंखे-सी चल रही हैं
सूइयाँ अब।
सूरज फिर से पूरब में उग आया है।