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प्यार / शलभ श्रीराम सिंह
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प्यार था
मुस्कान में, चुप्पी में
यहाँ तक कि खिड़की में भी प्यार था!
अंधेरे में काँपता
छाया की तरह धूप में
सावधान करता
राहों के खतरों से बार-बार
प्यार था।
झरता हुआ पखंड़ी-पंखड़ी
ओस में भीगा भरा-भरा
हिलता हवा में रह रह कर
प्यार था।
आँखों में झाँकता
उतरता मन की गहरायों में
मुक्त करता हुआ किसी भी प्रस्थान के लिए
प्यार था
मुस्कान में, चुप्पी में,यहाँ तक कि खिड़की में भी।