भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने दीवारों से पूछा / कविता वाचक्नवी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:08, 16 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} चिह्नों भरी दीवारों से पूछा म...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंने

किसने तुम्हें छुआ कब-कब

बतलाओ तो

वे बदरंग, छिली-खुरचीं-सी

केवल इतना कह पाईं

हम तो

पूरी पत्थर-भर हैं

जड़ से

जन से

छिजी हुईं

कौन, कहाँ, कब, कैसे

दे जाता है

अपने दाग हमें

त्यौहारों पर कभी

दिखावों की घड़ियों पर कभी-कभी

पोत-पात, ढक-ढाँप-ढूँप झट

खूब उल्लसित होता है

ऐसे जड़-पत्थर ढाँचों से

आप सुरक्षा लेता है

और ठुँकी कीलों पर टाँगे

कैलेंडर की तारीख़ें

बदली-बदली देख समझता

इन पर इतने दिन बदले।