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माँ / कविता वाचक्नवी

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माँ

तुम्हारी लोरी नहीं सुनी मैंने,

कभी गाई होगी

याद नहीं

फिर भी जाने कैसे

मेरे कंठ से

तुम झरती हो।


तुम्हारी बंद आँखों के सपने

क्या रहे होंगे

नहीं पता

किंतु मैं

खुली आँखों

उन्हें देखती हूँ ।


मेरा मस्तक

सूँघा अवश्य होगा तुमने

मेरी माँ !

ध्यान नहीं पड़ता

परंतु

मेरे रोम-रोम से

तुम्हारी कस्तूरी फूटती है ।

तुम्हारा ममत्व

भरा होगा लबालब

मोह से,

मेरी जीवनासक्ति

यही बताती है ।

और

माँ !

तुमने कई बार


छुपा-छुपी में

ढूंढ निकाला होगा मुझे

पर मुझे

सदा की

तुम्हारी छुपा-छुपी

बहुत रुलाती है;

बहुत-बहुत रुलाती है;

माँ!!!