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तुम्हारे वरद-हस्त / कविता वाचक्नवी

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मेरे पिता !

एक दिन

झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,

पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।

देखी थी छटपटाहट

सुने थे आर्त्तनाद,

फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,

साथ-साथ

तुम्हें धधकते

किसी अनजान ज्वाल में

झुलसते

मुरझाते,

नहीं समझी

बुझे घावों में

झुलसता

तुम्हारा अन्तर्मन


आज लगा...

बुझी आग भी

सुलगती

सुलगती है

सुलगती रहती है।