Last modified on 17 सितम्बर 2008, at 01:26

कहा सूते मुगध नर / रैदास

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:26, 17 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रैदास }} <poem>कहा सूते मुगध नर काल के मंझि मुख। तजि ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कहा सूते मुगध नर काल के मंझि मुख।
तजि अब सति राम च्यंतत अनेक सुख।। टेक।।
असहज धीरज लोप, कृश्न उधरन कोप, मदन भवंग नहीं मंत्र जंत्रा।
विषम पावक झाल, ताहि वार न पार, लोभ की श्रपनी ग्यानं हंता।।१।।
विषम संसार भौ लहरि ब्याकुल तवै, मोह गुण विषै सन बंध भूता।
टेरि गुर गारड़ी मंत्र श्रवणं दीयौ, जागि रे रांम कहि कांइ सूता।।२।।
सकल सुमृति जिती, संत मिति कहैं तिती, पाइ नहीं पनंग मति परंम बेता।
ब्रह्म रिषि नारदा स्यंभ सनिकादिका, राम रमि रमत गये परितेता।।३।।
जजनि जाप निजाप रटणि तीर्थ दांन, वोखदी रसिक गदमूल देता।
नाग दवणि जरजरी, रांम सुमिरन बरी, भणत रैदास चेतनि चेता।।४।।