भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बीहड़ / नरेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:26, 29 जून 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
इन दिनों...
मेरे अंदर भी
एक बीहड़ पल रहा है
घुप्प अंधेरा
घुस सको तो आ जाओ
कीचड़ सनी झाड़ियों के पार
पेड़ों के झुरमुटों में
चहचहाती चिड़ियों के पास
कल-कल करती नदियाँ मिलेंगी
हरे-भरे पहाड़ भी
प्यार और उसकी स्मृतियाँ
सभी मिलेंगी
पर आना होगा
उन्हीं रास्तों से
जिन्हें खोल रखा है
तुम्हारे ख़ातिर